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विस्फारित नेत्रों से मन
टुकुर टुकुर
देख रहा है …
पाँव पसारते
सूनेपन को
कि…..कैसे
प्यार के
अटूट बंधन में
बंधे रिश्ते भी
उदासीन हो गए हैं.
आज कोई चाहत के भाव
उत्तेजित ही नहीं होते,
एक तरफ
हलचल हो भी तो क्या …?
दूसरी तरफ तो
फैली निस्तब्धता है.
संवाद, विवाद
सब धाराशायी हो गए हैं.
शिकायतों का चलन भी
श्वास-हीन हो चला है.
अंत में फिर वही मौन
डस जाता है रिश्तों को
यही अंतिम पड़ाव है
तो क्यों बनाये….संवारे
जाते हैं रिश्ते ?
बेघर कर बादल
सोचता ही नहीं
उस बूँद का हश्र ,
धरा से लिपटे…रोते…
पीले पत्तों की व्यथा
जानना चाहता ही नहीं
विशाल वृक्ष .
रिश्तों के सारे बंधन
नकार ही दिए जाते हैं
तो फिर………
घृणा का भी रिश्ता
कहाँ रह जाता है !
और…..तब…..
मौन को ही
अंगीकार करना पड़ता है
अंततः ….
तो ….
फिर रिश्तों में
डूबना क्यों….?
मोह – माया में
फंसना क्यों….?
निर्मोही ही भला
फिर श्याम सा !
कठोर ही अच्छा
फिर राम सा !!
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