अनामिका की सदायें
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तुम्हारे घर की
चौखटें तो
बहुत संकीर्ण थी…
चुगली भी करती थी
एक दूसरे की…
फिर तुम कैसे
अपने मन की
कर लेते थे…?
शायद तुम्हारी चाहते
घर की चौखटों
से ज्यादा बुलंद थी तब.
आज ….
लेकिन आज
हालात जुदा हैं..
चौखटें तो वहीँ हैं
मगर चाहतों की चौखटों में
दीमक लग गयी है…इसीलिए
मजबूरियों ने भी
पाँव पसार लिए हैं.
कितना परिवर्तन-पसंद
है ना इंसान ….
घर की चौखटें बदलें न बदलें …
मन की चौखटों को तो
बदल ही सकता है न
अपनी इच्छानुसार !!
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